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महाराजा सिरमौर की तानाशाही नीतियों के कारण छिड़ा था पझौता आंदोलन

By: Jun 11th, 2024 12:08 am

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पझौता गोलीकांड दिवस विशेष

वैद्य सूरत सिंह (स्वतंत्रता सैनानी)

बीआर चौहान — यशवंतनगर

हिमाचल प्रदेश के इतिहास में पझौता आंदोलन को स्वतंत्रता संग्राम का एक हिस्सा माना जाता है। 11 जून, 1943 को महाराजा सिरमौर राजेंद्र प्रकाश की सेना द्वारा पझौता आंदोलन के निहत्थे लोगों पर राजगढ़ के सरोट टिले से 1700 राउंड गोलियां चलाई गई थीं, जिसमें कमना राम नामक व्यक्ति गोली लगने से मौके पर ही शहीद हुए थे, जबकि तुलसी राम, जाति राम, कमाल चंद, हेत राम, सही राम, चेत सिंह घायल हो गए थे। बता दें कि 11 जून का दिन हर वर्ष पझौता गोलीकांड दिवस के रूप में मनाया जाता है। सिरमौर जिला के राजगढ़ तहसील का उत्तरी-पूर्व भाग पझौता घाटी के नाम से जाना जाता है। वैद्य सूरत सिंह के नेतृत्त्व में इस क्षेत्र के जांबाज व वीर सपूतों द्वारा सन् 1943 में अपने अधिकार के लिए महाराजा सिरमौर के विरुद्ध आंदोलन करके रियासती सरकार के दांत खट्टे कर दिए थे। इसी दौरान महात्मा गांधी द्वारा सन् 1942 में देश में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ किया गया था, जिस कारण इस आंदोलन को देश के स्वतंत्र होने के उपरांत भारत छोड़ो आंदोलन की एक कड़ी माना गया था। पझौता आंदोलन से जुड़े लोगों को प्रदेश सरकार द्वारा स्वतंत्रता सैनानियों का दर्जा दिया गया था। महाराजा सिरमौर राजेंद्र प्रकाश की दमनकारी एवं तानाशाही नीतियों के कारण लोगों में रियासती सरकार के प्रति काफी आक्रोश था।

महाराजा सिरमौर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार की सेना और रसद प्रदान करके मदद कर रहे थे और जिस कारण रियासती सरकार द्वारा लोगों पर जबरन घराट, रीत-विवाह इत्यादि अनुचित कर लगाने के अतिरिक्त सेना में जबरन भर्ती होने के लिए फरमान जारी किए गए। रियासती सरकार के तानाशाही रवैयै से तंग आकर पझौता घाटी के लोग अक्तूबर, 1942 में टपरोली नामक गांव में एकत्रित हुए और पझौता किसान सभा का गठन किया गया, आंदोलन की कमान एवं नियंत्रण सभा के सचिव वैद्य सूरत सिंह के हाथ में थी। पझौता किसान सभा द्वारा पारित प्रस्ताव को महाराजा सिरमौर को भेजा गया, जिसमें बेगार प्रथा को बंद करने, जबरन सैनिक भर्ती, अनावश्यक कर लगाने, दस मन से अधिक अनाज सरकारी गोदामों में जमा करना इत्यादि शामिल था। महाराजा सिरमौर राजेंद्र प्रकाश ने उनकी मांगों पर कोई गौर नहीं किया गया। बताते हैं कि रियासती सरकार द्वारा सहकारी सभा में आलू का रेट तीन रुपए प्रति मन निर्धारित किया गया, जबकि खुले बाजार में आलू का रेट 16 रुपए प्रतिमन था, क्योंकि आलू की फसल इस क्षेत्र के लोगों की आय का एकमात्र साधन थी। महाराजा सिरमौर ने स्थिति को अनियंत्रित देखते हुए 12 मई, 1943 को पूरे क्षेत्र में मार्शल लॉ लगाने के आदेश जारी कर दिए और समूची पझौता घाटी को सेना के अधीन लाया गया, जिसकी कमान मेजर हीरा सिंह बाम को सौंपी गई।

सेना द्वारा आंदोलनकारियों को 24 घंटे में आत्मसमर्पण करने को कहा गया, मगर आंदोलनकारियों ने साफ मना कर दिया। 11 जून, 1943 को निहत्थे लोगों का एक दल आंदोलनकारियों से मिलने जा रहा था, तो जिस समय कुफरधार के पास यह दल पहुंचा, तो सेना ने राजगढ़ के समीप सरोट के टिले से गोलियों की बौछार शुरू कर दी। रिकार्ड के अनुसार सेना द्वारा 1700 राउंड गोलियां चलाईं, जिसमें कमना राम की मौके पर ही मौत हो गई। कुछ लोग घायल हो गए थे। दो मास के पश्चात सैनिक शासन और गोलीकांड के बाद सेना और पुलिस ने वैद्य सूरत सिंह सहित 69 आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया। 15 अगस्त, 1947 को देश के स्वतंत्र होने पर आंदोलन से जुड़े काफी लोगों को रिहा कर दिया गया, जबकि आंदोलन के प्रमुख वैद्य सूरत सिंह, बस्ती राम पहाड़ी और चेत सिंह वर्मा को सबसे बाद में मार्च, 1948 में रिहा किया गया। (एचडीएम)


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