वैचारिक लेख

प्रतिस्पर्धा के दौर में मातृभाषा को लेकर युवाओं में हीनभावना भी पनप रही है। भाषाओं को बचाने के लिए समय की मांग है कि क्षेत्र विशेष में स्थानीय भाषा के जानकारों को ही निगमों, निकायों, पंचायतों, बैंकों और अन्य सरकारी दफ्तरों में रोजगार दिए जाएं। इससे अंग्रेजी के फैलते वर्चस्व को चुनौती मिलेगी और ये लोग अपनी भाषाओं व बोलियों का संरक्षण तो करेंगे ही, उन्हें रोजगा

इसका ताजा उदाहरण रणवीर सिंह एवं आमिर खान के साथ हुई घटना से पता लगता है। इन दुविधाओं का समाधान जनता की तार्किक सावधानी ही है, क्योंकि कोई सूचना जब अत्यधिक वेग, हिंसा व उत्तेजना पैदा करे तो शंकित होना लाजिमी है। कुछ देर ठहरिए और मन को शांत कर सोचिए। क्योंकि जनता के जुड़ाव के लिए असंख्य सूचना का ऐसा समुद्र खड़ा कर दिया गया है जिसमें तैरना स्वयं सीखना पड़ेगा। क्योंकि जनता इस समय एंग ली द्वारा निर्देशित फिल्म लाइफ ऑफ पाई के मुख्य किरदार पाई की भांति खड़ी है जहां उसे सूचना के बवंडर से स्वयं बचना होगा... आज के समय में

वैसे यह भी हैरानी की बात है कि अमरीका दुनिया में ज्यादातर उन्हीं देशों का समर्थन करता है जो निरंकुश सत्ता के पालक हैं। अमरीका की विचार स्वतंत्रता और मानव अधिकारों की नीतियां केवल उसकी विदेश नीति के हथियार हैं जिनके अर्थ उसके अपने हितों के अनुसार बदलते रहते हैं...

इन खेल छात्रावासों में दाखिल होने के अवसर न के बराबर होते हैं। इसलिए स्कूल के बाद महाविद्यालय स्तर पर खेल विंग मिलना जरूरी हो जाता है...

मुझे यह तो पला चल गया था कि यह अफसर रिश्वत धड़ल्ले से खाता है-परन्तु साथ ही यह भी पला चला था कि वह रिश्वत कार में खाता है। दफ्तर अथवा घर में वह रिश्वत को हाथ भी नहीं लगाता। मेरे सामने कठिनाई यह थी कि अफसर को कार में कैसे बिठाऊं? पर भगवान बड़ा दयालु है। यह समस्या अपने आप हल हो गई। कार खुद अफसर के पास थी। उसके एक मातहत कर्मचारी ने साहब के लंच पर जाने के बहाने मुझे उसकी कार में पीछे बैठा दिया। कार चल दी, काफी देर तक चलने के बाद सिगार का धुआं छोड़ते हुए अफसर बोला-‘चुपचाप माल सीटों के नीचे घुसेड़ दो।’ अंधे को क्या चाहिए दो नैन, वह मिल गए। मैंने ब्रीफकेस खोलकर सौ के नोटों की दस गड्डियां ठिकाने लगा दी। कार किसी भी जगह लंच लेने नहीं रुकी। वापस हो गई। मुझे एक

हमारी सोच बदली कि नहीं, हमारी नीयत बदली कि नहीं, हमारा व्यवहार बदला कि नहीं, यह पैमाना है आध्यात्मिकता का। आध्यात्मिक हो गए तो संत हो गए। संत हो गए तो दुनिया की सेवा में लग गए। दुनिया की सेवा में लग गए तो सूर्य के चारों ओर के चक्कर वाला चरण पूरा होने लग गया। हम परिवार को समय दें, परिवार के लिए कुछ करें, और लगातार करते रहें, यह हमारी धुरी पर हमारा चक्कर है। हम समाज को समय दें, समाज के लिए कुछ करें, और लगातार करते रहें, यह समाज रूपी सूर्य के चारों ओर हमारा चक्कर है... भूगोल हमें बताता है कि हमारी पृथ्वी चपटी और गो

बदी पर नेकी की, झूठ पर सच की और बुराई पर भलाई की जीत की बात ही पढ़ते आए थे। जब से हमने होश संभाली, तभी से पाठशाला को मन्दिर सम माना जाता था, और गुरु वन्दना का तो बाकायदा एक दिन निर्धारित होता ही था। देखते ही देखते जब हमारी उम्र ने गुजरने की रफ्तार पकड़ी तो ये सब विश्वास, मूल्य और मान्यताएं भी अपना रूप बदल गयीं। पहले सुना था कि केवल गिरगिट ही रंग बदलता है, लेकिन अब अगर हर मौसम, हर दिन या हर पल रंग न बदल पायें तो उसके लिए कहोगे कि जा रे जमाना। ज

आज पंचायतों को जुर्माना लगाने की शक्तियां देने के अलावा जिला भर से एक आवारा पशु मुक्त पंचायत को पांच लाख रुपए की प्रोत्साहन राशि का प्रावधान करना भी एक सराहनीय कदम है। गौसदनों, गौशालाओं और पशुधन की देखभाल का जिम्मा उठाने वाले लोगों को भी सरकारी स्तर पर सम्मानित करना, प्रोत्साहन देना और पुरस्कृत किया जाना भी जरूरी है...

हफ्ता पहले तक वे भले चंगे ठीक ही थे। पर पता नहीं क्यों, कैसे, अचानक किसकी प्रेतछाया से उनके दिमाग पर अपना अभिनंदन ग्रंथ छपवाने का भूत सवार हो गया और उनकी आत्मा अभिनंदन ग्रंथ! अभिनंदन ग्रंथ पुकारने लगी चातक की तरह। इस समस्या की दिमागपूर्ति के लिए उन्होंने अपने शिष्यों की आपातकालीन बैठक बुलाई। जब उन्हें लगा कि इस बैठक में उनके लगभग सारे चेले चपाटे पधार चुके हैं तो अपने चेले चपाटों की हाजिरी लेने के बाद उन्होंने अपने चेले चपाटों को पल पल बदलती मु